Saturday, February 21, 2009

प्रकृति में मानव का स्थानः भाजनिक दृष्टिकोण

भजनों में मानव का प्रकृति में क्या है स्थान को देखने हेतु हमें इसरायली संस्कृति तथा परम्परा में जाना होगा। पु.नि. एवं पुरातात्विक विशलेषण से पता चलता है कि इसरायली अपने पड़ोसियों की तुलना में काफी पिछड़े हुये थे। कृषि, तकनीकि, राजनैतिक एवं सैनिक क्षेत्र में भी अपने चारों ओर फैले पड़ोसियों राष्ट्रों से बहुत पीछे थे। इसरायली इतिहास का प्रारम्भ प्रारम्भिक कुलपतियों अब्राहम, इसहाक, तथा याकूब से है। विद्वानों का यह मत है कि "कुलपति तथा उनके गोत्र सामी भ्रमण कारी जाति वंश के रूप में मध्य एशिया क्षेत्र की ओर आये। तथा फिनीफेपलिशती क्षेत्र में मध्य कांस्ययुग में बस गये।''२ इसरायलीयों का प्राचीन अनुभव रहा है कि वह प्रतिकूल तथा कठोर प्राकृतिक शक्तियों के ऊपर विजय प्राप्त करें। यहूदी मसीही विचार में मनुष्य का प्रकृति में क्या स्थान है, यह कुछ विशेष धर्मवैज्ञानिक ब्रांम्हांडीय धारणाओं पर आधारित है। यह विश्वास है कि केवल मनुष्य में ही वह गुण है जिसके माध्यम से वह परमेश्वर की दिव्यता को प्रगट कर सकता है। यह सौभाग्य अन्य कोई भी सजीव या निर्जीव सृष्टि को प्राप्त नहीं है। अतः मनुष्य ही सर्वोच्च है कि वह शेष सृष्टि के ऊपर रहकर शेष प्रकृति हेतु कार्य करे। उत्पत्ति १ः२६-२८ में भी यही विचार पाते हैं।

Friday, February 13, 2009

परमेश्वर की सर्वोच्चता, उसके सृष्टि के कार्य में प्रगट होती है

प्राचीन निकट पूर्व में इसरायलीयों का प्रकृति के प्रति व्यवहार एक खेतिहर के रूप में था या तो वह किसान है या फिर खेतिहर के रूप में था या तो वह किसान है या फिर एक बागवान। भजनकारों का प्रकृति के प्रति और भी दृष्टिकोण है जो भजनों में देखने में आता है कि परमेश्वर ने पृथ्वी को टिकाया है अपनी संपूर्णता से। अतः परमेश्वर की सर्वोच्चता, उसके सृष्टि के कार्य में प्रगट होती है वह महिमा विश्वास भय तथा आज्ञाकारिता का आधार है। तत्कालीन इसरायली संस्कृति में उपरोक्त विचार सृष्टिकर्ता हेतु प्रस्तुत थे। और इनके माध्यम से इसरायली सृष्टिकर्ता परमेश्वर की आराधना करते थे।

Monday, February 9, 2009

पुराहितीय परंपरा में परमेश्वर पशु राज्य पर भी प्रभुता (शासन) करता है

"भजन ८ में हम परमेश्वर विषयक याहवेवादी विचार तथा पर्यावरणीय क्रम पाते हैं न कि पुराहितीय वादी प्रभाव। पुराहितीय परंपरा में परमेश्वर पशु राज्य पर भी प्रभुता (शासन) करता है....... भजन निश्चित रूप से यह विचार प्रगट करता है कि समूचा पर्यावरणीय क्रम परनमेश्वर द्वारा संचालित किया जाता है।''१ अतः मनुष्य का यह नैतिक उत्तरदायित्व है पर्यावरण के प्रति जबकि यह उसका अंतरंग भाग है। परमेश्वर द्वारा मनुष्य को यह सामर्थ प्रदान की गयी है कि वह प्रकृति को नियंत्रित करे एक प्रतिनिधि के रूप में। यह मनुष्य के ऊपर है कि वह किस प्रकार प्रकृति को नियंत्रित करता है तथा उसकी चिंता करता है। तत्कालीन समय में भजनकार का तथा इसरायली दृष्टिकोण यह नहीं था कि पेड़ों को अनावश्यक रूप में काटा जाये। इसी बात को ण्क विद्वान कहते हैं कि "हम प्रकृति के भाग हैं, परन्तु परमेश्वर ने हमें इसे उत्तरदायी रूप से नियंत्रण करने हेतु नियुक्त किया है................ हम इस लिये परमेश्वर के प्रति उत्तरदायी हैं कि हम किस प्रकार इस शक्ति का प्रयोग करते हैं।''

Sunday, February 8, 2009

परमेश्वर संपोषक है तथा वह इस प्रक्रिया को निरंतर करता है।

यह विचार भी बताया है कि परमेश्वर संपोषक है तथा वह इस प्रक्रिया को निरंतर करता है। "सब कुछ परमेश्वर के आत्मा द्वारा सृजा गया है जो निरंतर पृथ्वी की प्राकृतिक जीवन को साल दर साल नया करता है'' तात्पर्य यह कि परमेश्वर का हस्तक्षेप नियनित रूप से प्रकृति में है अतः हमें प्रकृति का आदर करना चाहिए तथा परमेश्वर की तरह प्रकृति का सम्मान कर उसकी देखभाल करना चाहिए।

इसरायली दृष्टिकोण में परमेश्वर मनुष्य को अपना प्रतिनिधि ठहराता है ताकि वह उन अधिकारों तथा सामर्थ का उपयोग कर सकें। भजन ८ के पद ५ और ६ परमेश्वर द्वारा मनुष्य को सृष्टि में विशेष स्थान दिया गया है। "सब कुछ उसके पावों तले कर दिया।'' इस पद में भजनकार का तात्पर्य है कि अधिकार प्रतिनिधित्व करने हेतु दिया गया है प्रभुता या शासन करने हेतु नहीं। इसके विपरीत कई विद्वान यह आक्षेप लगाते हैं कि बाइबलीय सृष्टि का सि(ान्त पृथ्वी तथा उसके स्त्रोतों के दोहन का कारण है। १९६६ में "लियान व्हाइट'' नामक विद्वान ने भी अपने शीर्षक "दी हिस्टोरिकल रूट्स आफ इकालॉजिकल क्राइसिस'' में कुछ इसी प्रकार का प्रश्न उठाते हैं।

Saturday, February 7, 2009

इसरायली परमेश्वर को एक संपोषक के रूप में देखते हैं

इसरायली परमेश्वर को एक संपोषक के रूप में देखते हैं जिसने अपनी सामर्थ से सम्पूर्ण सृष्टि को रचा तथा वह उसकी चिंता करता है। भजन ८ः४-५ तथा १०४ः१०-३० में भजनकार अपने प्रशंसा गीत में परमेश्वर को संपोषक मानता है। संसार की बनाकर केवल उसे ऐसे ही नहीं छोड़ा है परन्तु वह उसे निरंतर संभाले हुए है। "तू पशु के लिए घास और मनुष्य के लिए वनस्पति उपजाता है, जिससे मनुष्य धरती से भोजन वस्तु उत्पन्न करें।'' उत्पत्ति के प्रथम अध्याय में तीसरे दिन परमेश्वर ने वनस्पतियों तथा वृक्षों को उपजने की आज्ञा दी। इसी सत्य को भजन के उपरोक्त पद में बताया गया है। यहां पर जंगली पशुओं तथा मनुष्य दोनों के लिये परमेश्वर ने वनस्पतियों तथा पेड़ पौधों को उपजाया है। "उपजाना'' हेतु मूल इब्रानी शब्द का अर्थ है "खेती करना''। तात्पर्य यह है कि मनुष्य का कार्य हे खेती करना, नाश करना नहीं तथा परमेश्वर मनुष्य एवं पशुओं का समान रूप से संपोषक है। भजन १०४ः३० में भजनकार एक गम्भीर सत्य को प्रगट करता है जिसमें परमेश्वर सभी जीवों की रखवाली करते हैं। "आत्मा'' तथा "श्वास'' हेतु एक ही मूल इब्रानी शब्द प्रयोग में लाया जाता है। उक्त पद में अर्थात्‌ परमेश्वर का आत्मा के द्वारा पशु तथा वनस्पतियां बनाये जाते हैं।